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आन्दोलन के बाद आत्मघात :अरविन्द केजरीवाल की राजनीती “Jagran Junction Forum”

सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
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जे.पी. के आन्दोलन के बाद से एक लम्बा समय बीत गया नई पीढ़ी को भी पुराने ढर्रे पर चलने की आदत सी हो चुकी थी. पिज्जा बर्गर से भूख, मिनरल वाटर और बीयर-वाईन से प्यास मिटाने वाली आज की पीढ़ी ” सब चलता है ” को जीवन का मूल वाक्य और लक्ष्य मान कर चल रही थी ..ये वही मूल वाक्य है जिससे भ्रष्टाचार की बेल पनपी और आज विशाल कल्पवृक्ष का रूप ले चुकी है जिससे हर नए कर्मनिष्ठ और समर्पित भ्रष्टाचारी की इच्छा को तथास्तु का वरदान मिलता रहा है..इस बेल को अधूरी आज़ादी ने बोया और धूर्त मालियों ने इससे खाद पानी उपलब्ध कराया , समय समय पर कुछ जागरूक माली आये जिन्होंने इससे काट छाट कर सुन्दर बनाने का प्रयास किया पर उनके बाद उनके शिष्यों ने फिर से इस कल्पवृक्ष को मनमानी शक्ल देकर और विशाल बना दिया और पुनः इसकी जिम्मेदारी पुराने मालियों के वंशजो के हाथो सौप दी जो आज हमारे सामने एक अप्रत्यक्ष निरंकुश सत्ता के रूप में प्रत्यक्ष हो रही है .

इस पुरे सफ़र का दुखद पहलु ये रहा ..की आततायी निरंकुश स्वतंत्रता के लिए लड़े गए महान आंदोलनों और आज़ादी के बाद हुए निरंकुशता विरोधी आंदोलनों की कहानी नई पीढ़ी को सुनाने और सिखाने वाले खुद ही इस कल्पवृक्ष से अपनी इच्छा पूर्ति में लग गए ,,और नई पीढ़ी को वो सारे संघर्ष बुजुर्गो का फ़र्ज़ या एक कहानी के रूप में याद रह गए जिन्हें पढ़कर आनंद तो लिया जा सकता है पर कुछ सीखने की जरुरत नहीं समझी गई ..और परिणाम आज हमारे सामने है की भ्रष्टाचार की सुनामी भविष्य को ग्रसने की ओर उन्मुख है ..

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वैसे तो इस राष्ट्र की सेवा में न जाने कितने ही माली दिन रात गुमनाम रूप से सेवा में लगे है जिसका परिणाम ये है की राष्ट्र अभी तक वीरान नहीं हुआ..पर कुछ ऐसे भी लोग रहे जिन्होंने पुरे राष्ट्र को इस भ्रष्टाचारी कल्पवृक्ष को नष्ट करने के लिए जगाना अधिक उचित समझा इनमे कुछ नाम हम ले सकते है .. जैसे  मेधा पाटकर , विनोवा भावे , के. एन. गोविन्दाचार्य , बाबा रामदेव ,अन्ना हजारे , अरविन्द केजरीवाल इत्यादि .. इनके अपने मत ,सिद्धांत ,लक्ष्य जो भी रहे हो पर इसमें दो राय नहीं की इन्होने देश के जनमानस को हिलाने का काम किया और एक समय तो ऐसा लगा की पूरा देश मिलकर इस कल्पवृक्ष को हिलाकर कुछ शाखाये तो गिरा ही देगा .पर ऐसा कुछ हुआ नहीं ,मुझे वो कहानी याद आई जिसमे लकड़ी के गट्ठर को एक किसान के लड़के अलग -अलग तोड़ने का प्रयास करते है और असफल रहते है ..

बहरहाल यहाँ वर्तमान के सबसे अधिक चर्चित माली अरविन्द केजरीवाल के बारे में बात हो रही है , अरविन्द और अन्ना ने एक समय लगभग सारे देश में एक जान सी फूक दी थी और नौजवानों ने एक थ्रिल के रूप में ही सही कुछ नया अनुभव मानकर ही निजी आनंद के लिए और कही- कही तो अन्ना और अरविन्द के बीच में अपना पोस्टर लगाने के लिए सडको पर उतर कर आन्दोलन किया ..मुझे कोई संकोच ये कहने में नहीं है की ये जोश छणिक था . आन्दोलन का भाव इस उत्साह के सैलाब में पीछे छूट गया .. अन्ना ने इस बात को शायद समझा होगा तभी उन्होंने जनजागरण के अधूरे कार्य को पूरा करने के लिए सामाजिक कार्यो में ही लगे रहने पर बल दिया और राजनीती से स्वयं को दूर रखने में भलाई समझी ..यही काम गाँधी जी ने किया यही जे.पी. ने और लोहिया ने किया . क्योकि ये समझते थे की किसी भी परिवर्तन के लिए एक प्रयास काफी नहीं होता कुछ पत्थरो को नीव में जाना ही होता है अन्ना ने भी यही किया. लेकिन अरविन्द जी ने राह बदल दी उन्होंने एक कठिन संकल्प ले लिया जिसका परिणाम जहा तक मेरी आशंका है पुरे आन्दोलन पर पड़ेगा और पड़ भी रहा है …

arvnd2एक बात पर स्पष्ट हु की अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना का पूरा उपयोग नहीं किया और अधूरी ताकत के साथ ही कूद पड़े और ऐसा करके उन्होंने न केवल आन्दोलन को कमजोर किया बल्कि देश के सामने भी एक गलत सन्देश दे दिया की उनके संगठन में आपसी मतभेद है .. ये समय राजनीती करने का नहीं था ये समय जनता में आये उबाल को एक सैलाब में बदल देने का था ..अन्ना जैसा दधिची जब अपनी अस्थिया देने को तैयार था तो मेरा मत है की अरविन्द को वज्र बनाना चाहिए था ..

पर अरविन्द ने ऐसा नहीं किया पूरा राष्ट्र एक सुर में अन्ना को गाँधी मानकर एक आस लगा चूका था पर अरविन्द की हड़बड़ी ने उसे निराश किया …अभी जनता सोच रही थी और उसे जागरूक करना दिल्ली की दो-चार सीट जीतने से ज्यादा महत्वपूर्ण ,परिणामदायक और लाभकारी कार्य था जिसे अन्ना और अरविन्द के राह अलग करने को ठेस लगी क्योकि ये प्रत्यक्ष था की अन्ना की कार्यकारी शक्ति केजरीवाल ही है ..


अरविन्द के साथ कुछ नाम ऐसे है जिनपर आसानी से ऊँगली उठ सकती है , ऐसे में उन्होंने सत्ता को भी मौका दे दिया.
एक राजनीतिक दल के रूप में समय समय पर देश हित का ढिंढोरा पीटने और सत्ता से सुरक्षा की गारंटी लेने वालो का हश्र जनता देख चुकी है .. एक बेहतरीन मौका अरविन्द को मिला था वो इतिहास से सबक लेते और गाँधी, जे.पी.,लोहिया के चेलो ने जैसा उनके आंदोलनों का हश्र किया उससे सबक लेते तो बेहतर होता ..आज अगर उन आंदोलनों से निकले नेताओं की बात करे तो उन्हें जनतंत्र का गद्दार कहने में संकोच नहीं होगा ..

arvnd1अरविन्द ने सत्ता को आन्दोलन से ऊपर मान लिया और राजनीतिक दल के गठन को प्राथमिकता दी इस तरह उन्होंने आन्दोलन का बहुत नुक्सान कर दिया है ऐसा मेरा मानना है, सत्ता की तारक शक्ति कितनी भी कम हो पर उसकी मारक शक्ति बहुत होती है गाँधी जी इस बात को समझते थे इसी कारन उन्होंने जनजागरण को अपना हथियार बनाया , बदलाव केवल जनमत ही कर सकता है कोई नेता नहीं और अभी कार्य इसी जनमत के निर्माण का चल रहा था वो भी घुटनों के बल पर था ,इसे ऊँगली पकड़ कर उठाये बिना गोद में लेकर चलने की गलती अरविन्द ने कर दी है …ये प्रभावी होगी इसपर मुझे पूर्ण संदेह है.. यद्यपि मै अरविन्द की हिम्मत और उनकी कर्तव्यनिष्ठा के प्रति नतमस्तक हु पर इस बात से मूह नहीं मोड़ा जा सकता की उन्होंने जन जागरण के आन्दोलन को कमजोर किया है .क्योकि  राजनीति आन्दोलन नहीं होती ..और आन्दोलन राजनीती नहीं होता ..

जनता जो खिडकियों से झाकने लगी थी उसे दरवाजे खोलने से पहले ही सूरज को ढक दिया और जो गलियों में उतर कर मुख्य मार्ग तक पहुच गए थे वो वापस घरो की तरफ लौटने लगे है….. इन्हें अब कौन वापस बुलाएगा …..?

अब, ना अन्ना है ,ना जन है , ना जनलोकपाल है
परदे पर केवल सरकार है और टीम केजरीवाल है………………………………………..


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