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राजनैतिक विकल्प या वैकल्पिक राजनीति:यक्ष प्रश्न

सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
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पिछले 20  दिन दिल्ली में गुजरे दिल्ली की खासियत ये है की ये कुछ भी छिपाती नहीं है ,सबकुछ सामने रख देती है अब आप उन्हें अपने मापदंडो पर परखते रहिये अच्छा है या बुरा है … दिल्ली किसी को स्पष्टीकरण भी नहीं देती अब है तो है…ये तो दिल्ली के इतिहास में है .आप लाखो सवाल लेकर भटकते रहिये ..कोई जवाब नहीं ..क्यों है? कैसे है? किसलिए है?…. कहा न ..अब है तो है ..बस ,,

खैर मेरे जाने की दो वजह थी एक तो मेरे भाई की बीमारी ..और दूसरी 1 अक्तूबर को प्रख्यात विचारक और चिन्तक श्री के.एन. गोविन्दाचार्य जी द्वारा पंचायतो को बजट से 7 % राशि सीधे दिए जाने की मांग को लेकर आयोजित धरना . कार्यक्रम जंतर मंतर पे था ,विषय सही लगा और चुकी गोविन्द जी जैसे भीष्म पितामह सरीखे व्यक्ति से जुड़ने का सौभाग्य मुझे है ..तो मै वहा उपस्थित था ..

… अरविन्द केजरीवाल चले थे अन्ना के साथ मिलकर व्यवस्था परिवर्तन करने ..और उसी व्यवस्था का हिस्सा बनने की तैयारी करने लगे जिसे बदलना था..बाबा रामदेव तो बाबा ठहरे ..वे खुद किस स्थिति में है वे ही जानते है पर जनता उन्हें लेकर बहुत निराश हो गई…

का कोई मत बना नहीं है बल्कि बन रहा है और मत निर्माण कुछ महीनो में नहीं होता बल्कि इसके लिए लम्बा समय लगता है… व्यवस्था की नई ईमारत बनाने के लिए कई अन्ना ..केजरीवाल ,रामदेव को नीव में जाना होगा ..अगर ये ही ऊपर चमकने का मोह पालेंगे तो फिर से वही ईमारत खड़ी होगी जो अभी है..

बहरहाल गोविन्द जी के मंच से सभी वक्ता अपने राजनैतिक सामाजिक कार्यो और कष्टों को बताने में ही लगे रहे .. गर्मी बढ़ी .और जैसे ही उनका वक्तव्य समाप्त हुआ उन्हें अपने घर में लगे एयर कंडीशन की याद आई और वे सभी एक एक कर चलते बने ..हा सभी ने एक स्वर में गोविन्द जी को ये सीख दी की वे या तो राजनैतिक दल बनाये या किसी को समर्थन करदे …अब ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था की जब पूरी व्यवस्था ही दोषपूर्ण है तो उसका हिस्सा बनना क्यों…? और जब पक्ष विपक्ष दोनों चोर है तो किसी का समर्थन क्यों?…. हा एक बात साफ़ करना चाहूँगा की गोविन्द जी ने समापन वक्तव्य में ये साफ़ कर दिया की जनप्रतिनिधि बनने के लिए केवल भावना जरुरी है न की सत्ता ..या फिर  केवल हमारी बात ,, हमारी चर्चा ,,  मीडिया में हमारी तस्वीरे हो ऐसा भी जरुरी नहीं … राजनैतिक विकल्प  की जगह वैकल्पिक राजनीति की बात कही .

की देश में आज भी बहुत से गाँधी, अन्ना ,गोविन्दाचार्य है पर इनकी हालत बत्तीस दांतों के बीच फसी जिह्वा जैसी है .. और दूसरी बात ये समझ में आई की रामदेव और केजरीवाल ने बहुत जल्दबाजी कर दी .. मकसद था व्यवस्था परिवर्तन कर ऐसी व्यवस्था लाना ताकि मानसिक बौधिक और शारीरिक रूप से सक्षम हमारे गाँव का साधारण मास्टर भी जन प्रतिनिधि बन सके…. न की फिर से व्यवस्था बौधिक शारीरिक और मानसिक रूप से सक्षम लेकिन केवल करोड़पति सामाजिक कार्यकर्ताओ की गुलाम बन जाये… दुखद रूप से अति व्यग्रता ने इतने शानदार आंदोलनों का कबाड़ा कर दिया … जिनसे जनता सम्मोहित होकर ही सही पर जुड़ रही थी ..जनमत को बनाने का काम बीच में ही रोककर इन सभी ने देश के साथ गलत किया…….

चोर तो तभी तक चोरी करेगा जबतक मालिक(जनता) जाग न जाये… चलिए हम ही चौकीदार बन जाये…हम ही क्यों बोले ..क्यों न दुसरे की सुने भी .. दुसरे ने अच्छा काम किया क्यों न उसे और अच्छा करने को प्रेरित कर दे  अपना झूठ चिल्लाकर कहने से अच्छा दुसरे का सच सुनले जिम्मेदारियों को बाँट ले अधिकारों को बाँट ले दुसरो का गुण ..अपनी गलतिया देखे …यही तो है वैकल्पिक राजनीती ..

राजनैतिक विकल्पों की तलाश में भटकने की जगह वैकल्पिक राजनीती करनी आज की मांग है .यक्ष प्रश्न ये है की कामदेव के बाण सरीखी मीडिया का मोह और जनता के बीच टैम्पू हाई करने का लोभ क्या छुट पायेगा …नीव में खोना कौन चाहेगा जबकि नीव में मजबूत पत्थरो का रहना जरुरी है ..क्योकि दूसरा रास्ता नहीं है व्यवस्था परिवर्तन का ..

जय हिंद

जय भारत

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