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मेरा विरोध करने वाले कई तर्क देते है ..मै उनकी बातो का जवाब एक एक करके दूंगी……….
क्षेत्रीय विषमता की दुहाई .……… जो लोग क्षेत्रीय विषमता की दुहाई
पउमचरित के नाम से प्रसिद्ध है ,को हिंदी भाषा का प्रथम ग्रन्थ माना है,स्वयंभू दक्षिण भारत के थे यही नहीं महाराष्ट्र के नामदेव, संत तुकाराम,ज्ञानेश्वर,गुजरात के –स्वामी दयानंद ,नरसी मेहता, बंगाल के- चैतन्य ,असाम के- शंकर देव जैसे महान संतो विचारको ने अपनी बात को हिंदी में ही जन जन तक पहुचाया..गाँधी, तिलक ,टैगोर, लाला लाजपत राय ,सुभाष चन्द्र बोस ,मदनमोहन मालवीय,ऐसे लाखो स्वतंत्रता के सेनानी जिन्होंने हिंदी को भारत की पहचान के रूप में मान्यता दी. क्या वे किसी एक ही क्षेत्र के थे ?? फिर क्षेत्रीय विषमता का रोना रोकर मेरे कदमो में बेडी क्यों डाली जाती है क्या भारत के अलग अलग क्षेत्रो के लोग अब अपने क्षेत्र के उन सेनानियों का सम्मान नहीं करते?
सांप्रदायिक होने का आक्षेप –—- मुझपे सांप्रदायिक होने का लांछन
हिंदी के प्रथम गज़लकार उस्ताद आमिर खुसरो की ही कही बात रखती हु…. “”मै हिंदी का हु , हिंद मेरा प्यारा वतन है ,वतन के तई प्यार ही मेरा ईमान है, मै एक ईमानदार वतनपरस्त रहकर हिंद की ही मिटटी में मिल जाना चाहता हु. “” खुसरो पुनः कहते है …””मै हिंद का तोता हु , मुझसे मीठा बोलना चाहो तो हिंदी में बात करो“” मुझपर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाने वालो का कठोर प्रतिवाद करते हुए राजर्षि पुरुषोत्तम दस टंडन ने कहा “”” यदि खुसरो ,जायसी ,हजरत निजामुद्दीन ,अब्दुल रहमान ,रहीम,और रसखान,की भाषा होते हुए भी कोई हिंदी को सांप्रदायिक सिद्ध कर दे तो मै साहित्य सम्मलेन भवन को आग लगा दूंगा “”‘ क्या मै स्वयं पर साम्प्रदायिकता का आरोप स्वीकार कर सकती हु ?
पिछड़ापन –—— कुछ ज्ञानी मुझपर पिछड़ी भाषा होने का भी आरोप
लिपि को अपनाया है और आप सब जानते है की हिंदी जिस रूप में बोली जाती है उसी रूप में लिखी भी जाती है इसलिए अंग्रेजी की अपेक्षा हिंदी सीखना ज्यादा सरल है ..सर्वनामो की एकरूपता,सरलता, विभक्तियो का प्रयोग,विशेषणों का आसान स्वरुप,कुछ ऐसी विशेषताए है मुझमे जो देश की किसी भी अन्य भाषा की अपेक्षा मुझे सरल और व्यापक बनाती है ..वास्तव में मेरी ये सारी विशेषताए मुझे सरल और प्रगतिशील बनाती है.मगर मेरे विरुद्ध तरह तरह की भ्रान्तिया फैली है.
नोट्स ओन इंडियन अफेअर्स में फ्रेडरिक जोनशोर ने लिखा है -“एक शिक्षित व्यक्ति जिसे हिन्दुस्तानी भाषा का साधारण ज्ञान हो नागरी लिपि लिख सकता है ”
आधुनिक तकनीकी से तालमेल बनाने में असमर्थ —-यद्यपि ये
की घोषणा की..जबकि उतने ही समय में उसने चीन में 75 करोड़ $ निवेश की घोषणा की…. क्या चीन में भारत से ज्यादा और अच्छी अंग्रेजी बोलने वाले है? नहीं … स्पष्ट है की बाजार संख्या बल को देखता है…और अगर हम बाजार के पीछे न भागे तो हमारा संख्याबल इतना पर्याप्त है की हम बाजार को अपनी शर्तो पर चलने को मजबूर कर सकते है …सरकार सोचती है जनता को हिंदी के प्रति जागरूक कैसे करे ? हम जानते है की जो भाषा राजकाज की भाषा होती है जनता उसका ही अनुकरण करती है उसे ही शिक्षा का माध्यम बनाना पसंद करती है . व्यवहारिक रूप से आज भी ये स्थिति अंग्रेजी को प्राप्त है .ये विडम्बना ही है की जिस महान राष्ट्र ने अपनी इतंत मौलिक सभ्यता और संस्कृति से विश्व को सम्मोहित कर विश्वगुरु की प्रतिष्ठा अर्जित की उसी देश की आज की पीढ़ी अपने ज्ञान,विज्ञानं, साहित्य,के विकास के लिए उधार की भाषा का सहारा ले रही है कुछ उत्साही हिद्नी प्रेमियों का प्रयास है की हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाया जाए इससे जरुर उसकी दशा में सुधर होगा….यद्यपि ये प्रयास वैसे ही है की जड़ सूख रही हो और पानी पत्तियों पर छिड़का जाए...पर चलिए ये प्रयास भी सही….अपनी वैश्विक स्थिति और भविष्य की योजनाओं पर बात अगले अंक में करूंगी आप सब भी मेरी व्यथा सुनकर परेशान हो रहे होंगे किन्तु परेशान न हो….अभी मेरे कदम रुके नहीं है ……… यात्रा अभी जारी है…….
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