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पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा .–
“”संविधान और कानून भले ही हम हिंदी के पक्ष में बना ले लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी बनी रहेगी “”...
अनुच्छेद 343 (२) में कहा गया की संविधान क्रियाशील होने के 15 वर्षो तक के लिए अंग्रेजी का ही प्रयोग होगा . एक तरफ हिंदी विरोधी स्वर और दूसरी तरफ सरकार का अंग्रेजी के प्रति मोह , मेरे लिए स्थितिया बहुत प्रतिकूल थी..तभी 343 (३) में कहा गया की 15 वर्षो बाद भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत करने का अधिकार संसद को होगा और इस तरह आधे अधूरे प्रयासों और बाधाओं के साथ मैंने आजाद भारत में कदम रखा .
1955 में बाल गंगा खरे की अध्यक्षता में पहले राजभाषा आयोग का गठन हुआ उसका प्रतिवेदन 1956 में आया .इसमें कहा गया ..
(अ). माध्यमिक शिक्षा तक हिंदी की अनिवार्यता ,
(ब). विश्वविद्यालय स्तर पर हिंदी की पढाई की व्यवस्था .
(स).प्रशासनिक कार्यो के लिए हिंदी ज्ञान की अनिवार्यता .
(द).केंद्रीय सेवा से सम्बंधित प्रतियोगी परीक्षाओ में अनिवार्य रूप से हिंदी का समावेश …….. इत्यादि प्रावधानों की संस्तुति की जिनके आधार पर 1960 में उच्चतम न्यायलय की भाषा, केंद्र सरकार के स्थानीय कार्यालयों के आतंरिक कार्यो की भाषा हिंदी होने सहित कुछ महत्वपूर्ण बाते कही गई. 1963 में बने राजभाषा अधिनियम में तय किया गया की कुछ कार्य हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओ में किये जाये.फिर राजभाषा अधिनियम 1964 में ये कहा गया की सभी राजकीय कार्यो में अंग्रेजी का प्रयोग 26 january 1971 तक होता रहेगा . कठिनाइयो में ही सही ही सही मगर मै चलती रही ..२६ जनवरी 1965 को सैद्धांतिक रूप से मै राजभाषा बन गई . पर इसके बाद ही मुझपर राजनीती की काली छाया पड़ी ,.1965 के बाद तमिलनाडु से विरोध आन्दोलन शुरू हो गया मुझे राजभाषा बनाये जाने के विरुद्ध .और देखते ही देखते हिन्दुस्थान में में तूफान सा खड़ा हो गया . आंध्र प्रदेश , तमिलनाडु, बंगाल, कर्णाटक, केरल, में भारी हिंसा हुई और सैकड़ो लोग मारे गए..भारतवासी राष्ट्र भाषा का विरोध कर रहे थे और भारत की स्वतंत्रता अपने दुर्भाग्य पर विलाप कर रही थी . मै तो मान अपमान की सीमा से परे थी मगर ये उन लाखो आत्माओं की भावना का अपमान था जिन्होंने विभिन्न प्रान्तों से होते हुए भी मुझे राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने और राष्ट्र की स्वतंत्रता को गरिमामय बनाने का स्वप्न देखा था .
त्रिभाषा फ़ॉर्मूला—– अंततः इसी दुर्भाग्य का बहाना बनाकर 1967 में ये प्राविधान किया गया की केंद्र सरकार और अहिन्दी भाषी राज्यों के मध्य पत्र व्यवहार में तबतक अंग्रेजी का प्रयोग होगा जबतक अहिन्दी भाषी राज्य हिंदी में पत्र व्यवहार करने का निर्णय स्वयं न कर ले.इस तरह त्रिभाषा फ़ॉर्मूला लागु किया गया. 1976 में राजभाषा से जुड़े कुछ नियम बनाये गए .इसमें राज्यों को तीन वर्गों में बाटा गया .—-
क वर्ग — उत्तर प्रदेश,बिहार,मध्य प्रदेश,राजेस्थान,हरियाणा,हिमांचल प्रदेश,दिल्ली ..
ख वर्ग –पंजाब ,महाराष्ट्र ,गुजरात,चंडीगढ़ ,व अंदमान निकोबार समूह,
ग वर्ग –इसमें शेष राज्यों को रखा गया .
‘क ‘ वर्ग के राज्यों में राजकीय सेवाओ में भरती में हिंदी को वैकल्पिक माध्यम रखा गया , प्रशिक्षण केन्द्रों में हिंदी माध्यम से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की गई , हिंदी में लिखे गए पत्रों का जवाब हिंदी में देना अनिवार्य किया गया . और ये लक्ष्य रखा गया की जहा हिंदी प्रचलित है वहा हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाये , और जहा एकदम प्रचलन नहीं है वहा इसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाये, हिंदी के विकास के लिए विभिन्न मंत्रालयों में समितिया गठित की गई . पर परिणाम वाही ढाक के तीन पात . न ही सरकार ने गंभीर प्रयास किये और न ही मुझे पूर्ण प्रतिष्ठा मिली.
कैसे अपने शैशव काल से ही मुझे मुश्किलें उठानी पड़ी ..पहले विदेशी भाषाओ से टकराना पड़ा और अब अपने ही घर की राजनीती से...कुछ उत्साही समर्थको ने मुझे अंतर्राष्ट्रीय मंच पे जगह दिलाने और वैश्विक भाषा बनाने का स्वप्न तक देख लिया .जब मुझे संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्यकारी भाषाओ में स्थान दिलाने की बात सोची… पर मेरे मन में ये व्यथा है की पहले मुझे अपने घर में तो सम्मान और प्रतिष्ठा मिले. अपने घर में उपेक्षित और राजनितिक कलह का शिकार हु मै इससे बाहर क्या सन्देश जायेगा ?
मेरे विरोध के कारन और उनका मूल्याङ्कन –————–
मेरा विरोध करने वाले हमेशा क्षेत्रीयता ,साम्प्रदायिकता ,पिछड़ेपन व अन्य तर्कों को आधार बनाते है .किन्तु उनका ये मूल्याङ्कन तर्कहीन है ..
अपनी कहानी की अगली कड़ी में दूंगी ………अभी यात्रा जारी है ……
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