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हिंदी की कहानी हिंदी की जुबानी -1

सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
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भारत एक विशाल देश है जहा प्रत्येक ५० किलोमीटर पर सांस्कृतिक

१३ भाषाई क्षत्रो में बाटा गया है ,२२

६०० बोलिया प्रचलित है. यहाँ किसी भी प्रान्त का व्यक्ति किसी भी प्रान्त

में जाने के लिए स्वतंत्र है …..स्पष्ट है ऐसी स्थिति में भाषाई विषमता से

रूकावट होगी ऐसी स्थिति में एक भाषा ऐसी होनी चाहिए जो राष्ट्र के

प्रत्येक नागरिक के बीच संपर्क साधन में सहायक हो सके .. भारत में ये

स्थान मुझे प्राप्त है .

स्वतंत्रता पूर्व ही मै भारत में संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी

अतः मेरी व्यापक विशेषताओ और भावनात्मक लगाव के कारण

स्वतंत्रता पूर्व ही मुझको राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय

लिया गया था .

मेरा सफ़र ….. यहाँ तक पहुचने के लिए मैंने एक लम्बा सफ़र तय

कबीर दास जी ने कहा था… “संसकिरत है कूप

जल भाषा बहता नीर ” , भाषा सतत प्रवाहमयी होती है जो स्वयं को

परिष्कृत करती जाती है समृद्ध करती जाती है , मैंने भी किया अपने

विकास की एक दीर्घ प्रक्रिया पूरी की …बहुत रोचक और उतार- चढाव से

भरी रही मेरी जीवन यात्रा …. आइये आपको सुनती हु….,

प्राचीन भारत की साहित्यिक भाषा संस्कृत थी , जिससे

प्राकृत ,पाली ,अपभ्रंश और खड़ी बोली का विकास हुआ . उत्तर भारत में

अवहट्ट, व पिंगल से एक नई भाषा ने जन्म लिया जिसे

.हिन्दुई , हिन्दवी ,जबान-ए-हिंदी और अंत में हिंदी नाम दिया गया

यानि की मै …

सल्तनत काल में मेरा विकास प्रारंभ ही हुआ था सातवी से दसवी शताब्दी

ईसवी के बीच का समय मेरे बचपन का समय था .. 13 वी शताब्दी में एक

औफी ने सबसे पहले हिन्दवी शब्द का प्रयोग हिंद की देशी

भाषा के लिए किया था . हिंदी शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हिंद या

भारत से जुडी किसी वास्तु ,व्यक्ति या बोली जाने वाली आर्य ,द्रविड़ या

बाबर ने भी

अपने संस्मरण में भारतीय हिन्दू ,मुसलमान ,सभी जातियों व भाषाओ

की पहचान मेरे नाम (हिंदी) से ही की है …मुस्लिम शासन में ही मेरा

विकास होना शुरू हो गया था,,, राजकीय आश्रय न मिलने के बाद भी मै

पुरे देश में रच बस गई .और आमजनता की भाषा बन गई .

सिकंदर लोदी के शासन काल में हिंदी में भी लिखने का रिवाज था

इसलिए हिंदी जानने वाले कर्मचारियों को फारसी सिखने की जरुरत नहीं

थी …और अकबर बादशाह का समय तो मेरे लिए स्वर्णकाल था .

कलकत्ता रिव्यू में ब्लोज्मन ने लिखा भी है ..”” अकबर के आधे शासन

काल तक सरकारी दस्तावेज हिंदी में भी लिखे जाने का रिवाज था “”.

मुस्लिम शासन में सिक्को और शाही फरमानों में भी मेरा प्रयोग होता था

, फारसी राजभाषा थी पर ऐसा नहीं था की मेरी पूर्ण उपेक्षा कर दी गई हो

…ये कर पाना संभव भी नहीं था क्योकि तबतक मै जनजीवन से पूरी

भक्ति आन्दोलन का समय था जिसने मुझे धर्म और

भारतीय संस्कृति की भाषा बनने का गौरव दिया और व्यापक जनाधार

वल्लभाचार्य ,

विट्ठल, रामानुज, रामानंद , और भी बहुत सारे संतो ने अपनी बात कहने

के लिए मेरी मदद ली . फिर अंग्रेज आ गए और उन्होंने राजकाज की

भाषा का दर्जा अंग्रेजी को देदिया …,पर मै आमजनता की भाषा बन चुकी

थी इसलिए मेरा कद लगातार बढ़ता ही चल गया .,,फूट डालने के लिए

अंग्रेजो ने हिंदी -उर्दू विवाद पैदा करने की कोशिश की ,,मुझे हिन्दुओ की

भाषा कहा गया , और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताकर दरार डालने

की कोशिश की …लेकिन तब ऐसे लाल थे जिन्हें ये स्वीकार्य नहीं था …

1873 में बंगाल सरकार ने कार्यालयों में

सभी विज्ञप्तिया और घोषणाए हिंदी में जारी करने का आदेश दिया . इसके

बाद हिन्दुस्तान में स्वतंत्रता आन्दोलन का का दौर शुरू हो गया …राष्ट्रीय

भारतीय

, ब्रह्म समाज , आर्य समाज , थियोसोफिकल सोसाइटी

और अनेक संगठन थे जिन्होंने हिन्दुस्तान के नवनिर्माण के लिए मुझे

स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो राष्ट्र भाषा के पद पर

प्रतिष्ठित करने के लिए मेरे प्रचार प्रसार को अपना लक्ष्य ही बना लिया था

और इसे धर्म और जनकल्याण की भाषा बना लिया था .राष्ट्र पिता ,हमारे

बापू… ने तो मुझे स्वराज्य का अंग माना और अपने 11 सूत्रों में मुझे भी

जगह दी . बाल गंगाधर तिलक , एनी बेसेंट, सुभाष चन्द्र बोस ,

मदनमोहन मालवीय ,सरदार पटेल,इत्यादि कई ऐसे स्वतंत्रता

आन्दोलन के वीर योद्धा थे जिन्होंने मुझे इस संग्राम में अपना अस्त्र

बनाया और मुझे राष्ट्र भाषा के पद पर बैठने का संकल्प लिया ,,

मेरे व्यापक जनाधार को देख कर ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

1925 के

कानपुर अधिवेशन में ये प्रस्ताव पास किया गया की प्रादेशिक कांग्रेस

समितिया अपने सभी कार्यो में प्रादेशिक भाषाओ या मेरा प्रयोग करे और

अखिल भारतीय स्तर पे मेरा ही प्रयोग हो ...मुझे इसपर बहुत प्रसन्नता

16 मार्च 1927 को सेठ गोविन्द दास ने कौंसिल ऑफ़ स्टेट में मांग

रखी की भारतीय विधानमंडल में अंग्रेजी के बदले हिंदी -उर्दू में भी भाषण

देने की अनुमति दी जाये …इस प्रस्ताव को नहीं माना गया ..पर मेरा

महत्व सभी को पता चल गया था … महान स्वतंत्रता संग्राम को व्यापक

और सक्रिय बनाये रखने के लिए और देशवासियों में प्रतेक दृष्टि से

स्वदेशीपन और राष्ट्रीयता की भावना जगाने के लिए मेरा साथ बहुत

महत्वपूर्ण था और मैंने पूरा साथ दिया ,,,क्योकि मै ही पुरे देश में संचार-

संपर्क के लिए सबसे आसान और सर्वस्वीकार्य हो सकती थी .इन सब

14 सितम्बर

1949 को संवैधानिक रूप से मुझे राजभाषा के पद पर बैठाया गया ….

अब मै आजाद देश की राजभाषा थी ,और मेरी कहानी में नए मोड़ आने

वाले थे ……

अभी मेरी कहानी जारी है … अगले अंक में…..

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