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पूरक या प्रतिद्वन्दी

सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
सर झुकाकर आसमा को देखिये ...........
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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज एक व्यवस्था जो मानव को अनुशाषित रखती है ,

हम जानते है की मानव की प्रवृत्ति वातावरण को अपने अनुकूल ढालने की रहती है अतः वह

व्यक्तिवादी होता चला जाता है यह प्राकृतिक है , इसलिए सामाजिक अनुशासन की जरुरत होती है

‘अपने भौतिक लाभ के लिए सब जायज है ” से बाहर

सबका भला हो सब सुख पाए” की अवधारणा में जिए और अराजक

न होने पाए. तो निश्चित है की ऐसी स्थिति में कर्तव्यों की बात पहले होगी न की

अधिकारों की.


अबतक यही सामाजिक परंपरा चलती रही है ,इसका आधार परिवार है जो

समाज की इकाई है ( इसे समाज का छोटा रूप भी क सकते है ). परिवार में दो तरह के सदस्य होते है

स्त्री (प्रकृति या शक्ति स्वरुप) -पुरुष (शिव स्वरुप) को एकदूसरे का पूरक तथा उसका

परिणाम जीवन (श्रृष्टि) कहा गया है . यहाँ महत्वपूर्ण है की आदिकाल से ही स्त्री और पुरुष को एक

यहाँ पश्चिमी संस्कृति की

तरह नारी न तो कभी भोग की वस्तु थी न ही है.



भारत में प्राचीन काल से ही वेदज्ञ , शिक्षित , संत ,

राजनीतिज्ञ महिलाओ के उदाहरण मिलते है जो पुरुषो के समान ही स्वतंत्रता का उपभोग करती थी

.प्राचीन काल में बाल विवाह ,सती प्रथा , कन्या वध,के उदाहरण नहीं मिलते और अगर कही मिलते

भी है तो अपवाद स्वरुप. विदेशी आक्रमणों के साथ भारत की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होता

गया , पर्दा प्रथा, बाल विवाह, शिशु हत्या जैसी कुछ घ्रिदित कुप्रथाए सामने आई .. समय के साथ

समाप्त होती गई . पर  ध्यान देने योग्य ये है की देश के सबसे बड़े हिस्से में, ग्रामीण हिस्से में

महिलाये सदा से अनवरत रूप से पुरुषो के साथ खेतो में काम करने से लेकर ग्रामीण

अर्थव्यवस्था में समान रूप से सक्रिय रही .



स्वतंत्रता आन्दोलन भी महिलाओ के शौर्य कथाओ से भरा पड़ा है, जेल जाने से लेकर लाठी

खाने तक कही भी महिलाओ ने कदम पीछे नहीं हटाये .ऐसे अनेको उदाहरण दिए जा सकते है जो यह

साबित करते है की महिलाओ ने जब जब जरूरत पड़ी है पुरुषो से आगे बढ़ कर विपरीत परिस्थितियों

से लोहा लिया है .



यद्यपि समाज में नारी की स्थिति पुरुषो की अपेक्षा कमजोर है पर

आजकल हमारे कुछ क्रन्तिकारी महिला सुधारवादियो ने तो एकदम नया ही रूप सामने

वे जब नारी की बात करते है तो उसे एकदम से दीन-हीन ,मजबूर , शोषित, प्रताड़ित,

जीवन के सभी सुखो से वंचित,चार दिवारी में कैद पुरुषो की काम वासना पूर्ति या मनोरंजन का साधन

मात्र और जाने क्या क्या बताते है ,,और पुरुष को नारी शोषक ,तथा नारी के लिए एक खतरनाक जीव

के रूप में दिखाते है . क्या वास्तविकता यही है ? क्या नारी की इस्थिति का ये निरूपण सही है ?



जरा विचार कीजिये क्या जो अनगिनत महिलाये घरो में समाज के भविष्य (बेटे बेटी दोनों ) को तराश

रही है , जो परिवार को अपने प्रकृति प्रदात्त आर्थिक -मानसिक कौशल से पुरुषो के साथ मिलकर चला

रही है , जो परिवार में निर्णायक भूमिका ख़ुशी से निभा रही है,  जो एक माँ ,बेटी पत्नी, प्रेयसी और

कई रूपों में अपने कर्तव्यों को पूरा कर रही है ….कभी आपने उनसे पुछा की वे खुद को क्या

समझती है ……….. गृहबंदी या गृहस्वामिनी , दासी या सहधर्मिणी, मनोरंजन का साधन

या प्रेम ,करुना ,ममता का आधार , भोग्या या जीवन साथी???


….. आज समाज की जरुरत है तो आज भी स्त्री पुरुष मिलकर एकदूसरे के पूरक बनकर अपने

कर्तव्यों को अंजाम दे रहे है . पर जाने क्या उद्देश्य हमारे आजकल के कुछ विशिष्ठ नव उदारवादियो

के मन में है जो निरंतर तोते की तरह नारी कष्ट में है ,दुखी है ,उसके जीवन में कोई सुख नहीं

का नारा लगाये चले जा रहे है मनो नारी होकर उनसे कोई अपराध हो गया . ये बस ऐसे ही है

की ये जाने बिना की हम सुखी है वे हमारे दुखी होने का ढिंढोरा पित देते है और इस स्थिति

में हम भी खुद को दुखी मान बैठते है .


हो सकता है की हमारे समाज में कुछ लोगो के अनुभव बुरे रहे हो उनके सामने स्त्री पुरुष

संबंधो की अच्छी छवि नहीं आई हो पर इसका मतलब ये तो नहीं है की संपूर्ण नारी जाती

को मात्र भोग्या ही मन लिया जाये. ये खोखले सुधारवादी विचारक व्यापक दृष्टिकोण क्यों नहीं

अपनाते हमेशा संकुचित क्यों रहते है ? उन्हें ये क्यों समझ नहीं आता की प्राकृतिक , मानसिक

रूप से स्त्री और पुरुष में विभिन्नता है और ये वास्तव में विभिन्नता नहीं बल्कि दोनों की

विशिष्टताये है तो जाहिर है की उनके व्यव्हार ,विचार को प्रभावित करेंगी ही इसे बदलने पे

आप क्यों तुले है ? नारी में मातृत्व का विशिष्ट गुण है तो उसमे ममता दया ,करुना ,कोमलता

स्त्री

पुरुष जो एक दुसरे के पूरक ही है उन्हें एक दुसरे का प्रतिद्वंदी बना कर क्यों प्रस्तुत किया जा

रहा है ?


कुछ अधिनिक माता पिता अपनी बच्चियों के सामने यह कहने में बहुत गर्व का अनुभव करते है की

हमने तो अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है , वे यह भूल जाते है की ऐसा कहने में नारी की प्राकृतिक

विशेषता की तुलना पुरुष से करते है और पुरुष को खुद ही विशिष्टता प्रदान कर बच्ची के मन में यह

ड़ाल देते है की जरुर बेटा कुछ विशिष्ट होगा और मेरा पालन उसी तरह हो रहा है …वास्तव में यह गलत

है ..होना यह चाहिए की आप अपनी बेटी में यह भाव भरे की वह प्रकृति का सबसे सुन्दर

वह विशिष्ट है , वह एक स्त्री है और यह उसके लिए गर्व का विषय है ..


आज कल महिला अधिकारों की चर्चा चारो और गूंज रही है ,और महिला आरक्षण बिल राज्य सभा में

पास होने को महिला विकास के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित करने में सरकार और

मीडिया सारी ताकत लगा रही है .. पर सवाल ये उठते है की हम आरक्षण के प्रति इतने आग्रहपूर्ण

क्यों है ,क्या दूसरा कोई तरीका नहीं है महिलाओ के विकास का ? अधिकारों का मतलब क्या मात्र

भौतिक आर्थिक उन्नति करने से है ?६० वर्षो में आरक्षण व्यवस्था से जो उपलब्धिया हमें मिली है

वह छुपी नहीं है आज भी कुछ गिने चुने उदाहरण छोड़ दे तो तो आरक्षण का लाभ केवल उन्हें ही मिल

सका है जो पहले से ही सक्षम है, कोई भी व्यक्ति जो किसी भी जाती, धर्म, लिंग का हो वह आज भी

आरक्षण कोई समाधान

नहीं है बल्कि यह जाती, धर्म ,लिंग के नाम पर जनता को वोट बैंक के रूप में बाटने की

नाकारा सरकारों की धूर्त राजनीती का हिस्सा है .


हम नारी को बार बार यह एहसास क्यों दिलाते है की वह कमजोर है ,लाचार है ऐसा क्यों

नहीं कहते की नारी सक्षम है उसे समाज के प्रोत्साहन की जरूरत है दया की नहीं . हमारा

समाज अभी बहुत मजबूत , शांत और सुखी है ,क्योकि अभी हमारे परिवार सुदृढ़ है और इस समाज

में नारी आज भी मुखर ,क्रियाशील ,जिम्मेदार, प्रभावी और सम्मानित है .मीडिया और प्रचार के

पर यदि आप इस देश

की नारी के एक माँ, बेटी ,बहु, पत्नी, और पुरुष के पूरक स्वरुप को समझ नहीं सकते ,उसका

पुरुष की दैहिक मनोरंजन की वस्तु मात्र बता

कर उसे अपमानित न करे . यह अक्षम्य है .ऐसा करके आप उन करोडो स्त्री पुरुषो की

भावनाओ को ठेस पंहुचा रहे है जो स्वयम को एक दुसरे को पूरक मानते है प्रतिद्वंदी नहीं

उन्हें पूरक ही रहने दे एक दुसरे का …

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