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२ दिन के लिए मै इलाहाबाद एक परीक्षा के लिए गया था , परीक्षा केंद्र के रस्ते में चंद्रशेखर आज़ाद पार्क पड़ा , मन में ऊत्सुकता हुई की उस पवित्र स्थल के दर्शन करू जहा एक अकेले वीर देशभक्त सेनानी ने अंग्रेजो के पसीने छुड़ा दिए .. ये वही अल्फ्रेड पार्क था जहा पर आजाद शहीद हुए थे. .काफी पूछने पर समाधी स्थल तक पंहुचा .रास्ते में कई जोड़े अपने में लीन मिले जिन्हें देख कर चुप चाप निगाह झुकाकर निकल जाना ही सही लगा .
काफी हैरत हुई ये देखकर की कही भी ऐसा बोर्ड नहीं दिखा जो ये निर्देशित करता की समाधी स्थल किस दिशा में है , खैर हम पहुचे उत्सुकता थी और समाधी स्थल था भी ऐसा जो एक वीर क्रन्तिकारी की शहादत का प्रतीक लग रहा था , वह जामुन का वृक्ष तो नहीं था जिसकी आड़ में आज़ाद ने कई अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था पर उसकी जगह एक दूसरा वृक्ष लगा दिया गया था .. वहा काफी लोग थे . वही पास में एक बोर्ड लगा था जिसपर स्पष्ट लिखा था “”कृपया अपने जूते- चप्पल उतार कर प्रवेश करे.””
मगर ये देख कर बेहद अफ़सोस हुआ की अधिकांश लोग अपने बच्चो के साथ समाधी स्थल के चबूतरे पर जूते पहने हुए ही खड़े थे .
समझ में नहीं आया किसे दोष दे , सरकार क्या क्या करे हर जगह डंडा लेकर सिपाही नहीं बैठा सकती और हम तो बस दुसरो को समझाने में ही सारी उर्जा प्रयोग करते है .पर क्या अपने सोचा है ….
यदि हमारी आने वाली पीढ़िया १५ अगस्त को रविवार की तरह मात्र अवकाश का दिन और शहीदों के स्मारकों को पिकनिक प्लेस या लोवेर्स गार्डेन के रूप में ही समझने लगी तो इसमें दोष किसका है ?
अपने बच्चो को डॉक्टर , ingenear बनाने के अलावा क्या हम ये कोशिश करते है की उन्हें देश के गौरवशाली स्वतंत्रता संग्राम और महान इतिहास से परिचित कराये उन्हें अपने मान बिन्दुओ का सम्मान करना सिखाये …
वही संग्रहालय भी देखा जिसमे इतिहास से जुडी तमाम उपयोगी दुर्लभ जानकारिया और यादे संजो कर राखी गई है और व्यवस्था भी बहुत अच्छी है .. इसके लिए वहा के कर्मचारी बधाई के पात्र है ..
व्यवस्था को कोसने से पहले क्यों न हम अपनी जिम्मेदारियों को थोडा ही सही निभाना शुरू करे …
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